Hindi/Sanskrit | Translation | Meaning |
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी। स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।। अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्। ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।। |
mahimnah param te parama vidusho yadyasadrishi stutir brahma dina mapitadava sannastvayi girah, atha vacyah sarvah svamati parina mavadhi grinan mamapyeshah stotre hara nirapavadah parikarah ||1|| |
हे हर आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं। मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूं। जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो। पर हे महादेव! स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं। जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है। उसी प्रकार मैं यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूं। |
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः । अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।। स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः । पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ।।२।। |
Atitah panthanam tava ca mahima vanmanasayor atad vyavrttya yam cakita mabhi dhatte shrutirapi, sa kasya stotavyah katividha gunah kasya vishayah pade tvarvacine patati na manah kasya na vacah. ||2|| |
हे शिव आपकी व्याख्या न तो मन ना ही वचन द्वारा ही संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं। तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं। अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते हुए भी की आप आदि अंत रहित परमात्मा का गुणगान कठिन है। मैं आपका वंदना करता हूं। |
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः । तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।। मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः । पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ।।३।। |
Madhu sphita vacah paramam amritam nirmitavatas tava brahman kim vag api suraguror vismaya padam, mama tvetam vanim guna kathana punyena bhavatah punam ityarthe’smin puramathana buddhir vyavasita.||3|| |
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी! अपने सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूं। कि इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धि का विकास होगा। |
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् । त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु ।। अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं । विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ।।४।। |
Tavaisvaryam yat taj jagadudaya raksa pralayakrit trayivastu vyastam tisrishu guna-bhinnasu tanushu, abhavyanam asmin varada ramaniyama ramanim vihantum vyakrosim vidadhata ihaike jadadhiyah. ||4|| |
हे देव आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपके ही सहिंता गाते हैं। तीनों गुण (सत-रज-तम) आपसेे प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है। |
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं । किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।। अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः । कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ।।५।। |
Kimihah kimkayah sa khalu kimupaya stribhuvanam kimadharo dhata srijati kimupadana iti ca, atarkyaish varye tvay yanavasara duhstho hatadhiyah kutarko’yam kamshcin mukharayati mohaya jagatah. ||5|| |
हे महादेव! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं। इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वो कहते हैं कि अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इस श्रृष्टि को किस प्रकार धारण करता है ? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता। |
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां । अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।। अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो । यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ।।६।। |
Ajanmano lokah kimavayava vanto’pi jagatam adhisthataram kim bhavavidhir-anadritya bhavati, anisho va kuryad bhuvana janane kah parikaro yato mandastvam praty-amaravara samsherata ime.||6|| |
हे परमपिता! इस श्रृष्टि में सात लोक (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक) हैं। इनका सृजन भला सृजक यानी कि आपके) बिना कैसे संभव हो सका ? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए ? तात्पर्य है कि आप पर संशय का कोई तर्क भी नहीं हो सकता है। |
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति । प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।। रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।७।। |
Trayi sankhyam yogah pasupati matam vaishnavamiti prabhinne prasthane paramidamadah pathyamiti ca, rucinam vaicitryad riju kutila nana pathajusham nrinameko gamyas tvamsasi payasa marnava iva.||7|| |
विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिया विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अंततः सागर में समाहित हो जाती है। ठीक उसी प्रकार हर मार्ग आप तक ही पहुंचता है। |
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः । कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।। सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां । न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ।।८।। |
Mahokshah khatvangam parashu-rajinam bhasma haninah kapalam cetiyat tava varada tantro pakaranam, surastam tamriddhim dadhati tu bhavad bhru pranihitam na hi svatma ramam vishaya mriga trishna bhramayati. ||8|| |
हे शिव! आपके भृकुटि के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, नागमाला एवं भस्म हैं। अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम ऐश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते? तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है। आप इच्छा रहित हो। स्वयं में ही स्थित रहते हो। |
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं । परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।। समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव । स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ।।९।। |
Dhruvam kascit sarvam sakala mapara stva dhruva midam paro dhrau vyadhrauvye jagati gadati vyasta vishaye, samaste’pye tasmin puramathana tair vismita iva stuvan jihremi tvam na khalu nanu dhrishta mukharata. ||9|| |
हे त्रिपुरहंता इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है। तो कोई इसे अनित्य समझता है। अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है। पर मेरी भक्ति आप में और दृढ़ होती जा रही है। |
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः । परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः ।। ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत् । स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ।।१०।। |
Tavaisvaryam yatnad yadupari virincir-hari-radhah paricchett- um yatav anala manala skandha vapushah, tato hakti sraddha bhara-guru-grinad-bhyam girisha yat svayam tasthe tabhyam tava kim anuvrittir na phalati. ||10|| |
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमशः ऊपर एवं नीचे की दिशा में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाएं। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है ? |
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं । दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् ।। शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः । स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ।।११।। |
Ayatnadapadya tribhuvanama-vairavya-tikaram d- ashasyo yadbahun abhrita ranakandu paravashan, sthirah padmasreni racita caranam bhoruhabaleh sthiraya stvad bhaktes tripurahara visphur jitamidam. ||11|| |
हे त्रिपुरान्तक दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे। हे प्रभु! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था। |
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं । बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।। अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि । प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ।।१२।। |
Amushya tvatseva samadhigata-saram bhujavanam balat-kailase’pi tvadadhivasatau vikramayatah, alabhya patale pyalasa-calitan-gustha-shirasi- pratishtha tvayyasid dhruvamupacito muhyati khalah ||12|| |
हे शिव एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की। हे महादेव। आपने अपने सहज पांव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया। फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा। वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका। |
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं । अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः ।। न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः । न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ।।१३।। |
Yadriddhim sutramno varada paramo-ccairapi satim adhashcakre banah parijana vidheya tribhuvanah, na taccitram tasmin varivasitari tvac caranayor na kasya unnatyai bhavati srirasastvay yavanatih. ||13|| |
हे शम्भो आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन सका। तथा तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं हैं। |
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा । विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः ।। स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो । विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः ।।१४।। |
Akanda brahmanda kshaya cakita devasura kripa vidheya syasidyas trinayana visham samhrita vatah, sa kalmashah kanthe tava na kurute na shriya maho vikaro’pi shlaghyo bhuvana-bhaya-bhangavyasaninah-. ||14|| |
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुंद्र मंथन किया। समुद्र से अनेक मूल्यवान वस्तुएं प्राप्त हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बांट लिया। पर जब समुंद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही श्रृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया। और सभी भयभीत हो गए। हे हर! तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लियाा। वह विष आपके कंठ में निष्क्रिय होकर पड़ा है। विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया। |
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे । निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।। स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत् । स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः ।।१५।। |
Asiddhartha naiva kvacidapi sadeva suranare nivartante nityam, jagati jayino yasya vishikhah, sa pashyannisa tvam itara surasadharana mabhut smarah smarta-vyatma na hi vasishu pathyah paribhavah. ||15|| |
हे प्रभु कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों या देव या दानव हो। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जानो कि अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता। |
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं । पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम् ।। मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा । जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ।।१६।। |
Mahi padaghatad vrajati sahasa samshaya-padam padam visnor-bhramyad bhujaparigha-rugna-graha-ganam-, muhur-dyaur-dausthyam yat-yanibhrita-jata-taditata- ta jagad-rakshayai tvam natasi nanu vamaiva vibhuta. ||16|| |
हे नटराज! जब संसार कल्याण के हित के हेतू आप तांडव करने लगते हैं। तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती हैं। आपके हाथों के परिधि से टकराकर ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। विष्णु लोक भी हिल जाता है। आपके जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोक व्याकुल हो उठता हैंं। हे महादेव! आश्चर्य है कि अनेकों बार कल्याणकारी कार्य भी भय उत्पन्न करते हैं। |
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः । प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते ।। जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति । अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ।।१७।। |
Viyad-vyapi tara gana-gunita phenod-gama-rucih pravaho varam yah prishata-laghu-dristah shirasi te, jagad-dvipakaram jaladhivalayam tena kritami- tyane-naivon-neyam dhrita-mahima divyam tava vapuh. ||17|| |
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बीच से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात उत्पन्न करती हैं। पर ये उफान से परिपूर्ण गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन ही दृष्टिगोचर होती हैं। ये आपके दिव्य स्वरूप का ही परिचायक है। |
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो । रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति ।। दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः । विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ।।१८।। |
Rathah kshoni yanta shata-dhriti-ragendro dhanuratho rathange candrarkau rathacarana-panih shara iti, didhakshoste ko’yam tripura-trina-madambara-vidhir- vidheyaih kridantyo na khalu paratantrah prabhu-dhiyah. ||18|| |
हे शिव आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया। हे शम्भू इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता ? |
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः । यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।। गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः । त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ।।१९।। |
Hariste sahasram kamala-balima-dhaya padayor yadekone tasmin nija-mudaharan-netra-kamalam, g- ato bhaktyu-drekah parinatim-asau cakra-vapusha trayanam rakshayai tripura-hara jagarti jagatam. ||19|| |
जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से हरि ने अपने एक आंख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी यही अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लियाा । जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं। |
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां । क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।। अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं । श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः ।।२०।। |
Kratau supte jagrat tvamasi phalayoge kratumatam kva karma pradhvastam phalati purusha-radhana-mrite, atas-tva- m sam-preksya kratusu phala-dana-pratibhuvam shrutau shraddham baddhva dridha-parikarah karmasu janah. ||20|| |
हे देवाधिदेव! आपने ही कर्म -फल का विधान बनाया। आपके ही विधान से अच्छे कर्मों तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त होता है। आपके वचनों में श्रद्धा रख कर सभी वेद कर्मों में आस्था बनाया रखते हैं तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं। |
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां । ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः ।। क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः । ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः ।।२१।। |
Kriyadakso dakshah kratupati-radhisha-stanubhrita- m rishinamartvijyam sharanada sadasyah suraganah, kratu-bhramshas-tvat- tah kratuphala-vidhana-vyasanino dh- ruvam kartuh sraddha vidhura-mabhicaraya hi makhah. ||21|| |
हे प्रभु! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है। दक्ष प्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि शामिल हुएं। फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ। आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्षद्मवेश में क्यों न हों। |
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं । गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।। धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं । त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ।।२२।। |
Praja-natham natha prasabha-mabhikam svam duhitaram gatam rohid-bhutam rira-mayishumrishyasya vapusha, dhanus paner yatam divamapi sapatra kritamamum trasantam te’dyapi tyajati na mriga-vyadharabhasah. ||22|| |
एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गया। जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरुप धारण कर भागने की कोशिश की। तो कामातुर ब्रह्मा ने भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर! तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा की ओर कूच किया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भाग निकले तथा आज भी आपसे भयभीत हैं। |
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत् । पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।। यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात् । अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ।।२३।। |
Svalavanya-shamsa dhrita-dhanusha-mahnnaya trinavat purah plustam drishtva pura-mathana pushpa-yudhamapi, yadi strainam devi yama-nirata dehardha-ghatana davaiti tvam-addha bata varada mugdha yuvatayah. ||23|| |
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुईं। ये शंका निर्मूल थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को जला करा नाश्ता करा दिया। |
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः । चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः ।। अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं । तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ।।२४।। |
Shmashanesva-krida smarahara pishacah sahacarash cita-bhasma-lepah sragapi nrikaroti-parikarah. amangalyam- shilam tava bhavatu namaiva-makhilam tathapi smartrinam varada paramam mangalamasi. ||24|| |
हे भोलेनाथ! आप श्मशान में रमण करते हैं। भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं। आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी! आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदायी प्रतीत होता है। क्योकि हे शंकर! आप मनोवान्छिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते हैं। |
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः । प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः ।। यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये । दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् ।।२५।। |
Manah pratyak-citte savidha-mavadhayatta-marutah pr- ahrishyadromanah pramada-salilot-sangitadrisah y- ada-lokyah-ladam hrada iva nimajya-mritamaye dadhat-yantas- -tattvam kimapi yaminas-tat kila bhavan. ||25|| |
हे योगिराज! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पद्धति को अपनाते हैं। जैसे कि श्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि। हे महादेव! इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस सुख को प्राप्त करते हैं। वो वास्तव में आप ही हैं। |
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः । त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।। परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं । न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि ।।२६।। |
Tvamarkas-tvam somas tvamasi pavanas tvam hutavahas tvamapas-tvam vyoma tvamu dharanir-atma tvamiti ca, paricchinnam-evam tvayi parinata bibhratu giram na vidmas-tat-tattvam vayamiha tu yat-tvam na bhavasi. ||26|| |
हे शिव ! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों। |
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान् । अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति ।। तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः । समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ।।२७।। |
Trayim tisro vrittis tribhuvana-matho trinapi sura nakaradyair-varnais tribhir-abhi-dadhat-tirnavikri- ti, turiyam te dhama dhvanibhi-rava-rundhana-manubh- ih samastam vyastam tvam sharanada grinat-yomiti padam. ||27|| |
हे सर्वेश्वर! ’’ऊँ’’ तीन तत्वों से बना हैं। अ, ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता हैं। हे ओंकार ! आप ही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं। |
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान् । तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।। अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि । प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते ।।२८।। |
Bhavah sarvo rudrah pasupati-rathograh sahamahan statha bhime-shanav iti yadabhi-dhana-shtakam-idam, amu- shmin-pratyekam pravicarati deva shrutirapi priyayasmai dhamne pravihita-namasyo’smi bhavate. ||28|| |
हे शिव! विद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं। भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान। हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामों से स्तुति करता हूं। |
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः । नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।। नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः । नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ।।२९।। |
Namo nedisthaya priyadava davishthaya ca namo namah kshodisthaya smarahara mahishthaya ca namah namo varshishthaya trinayana yavishthaya ca namo namah sarvasmai te tadida-mitisarvaya ca namah. ||29|| |
हे त्रिलोचन! आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी। आप श्रेष्ठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी। आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभे कुछ से परे भी । |
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः । प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः ।। जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः । प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ।।३०।। |
Bahala-rajase vishvot-pattau bhavaya namo namah prabala-tamase tat-samhare haraya namo namah, jana-sukhakrite sattvo-driktau mridaya namo namah pramahasi pade nistraigunye shivaya namo namah. ||30|| |
हे भव! मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ। हे हर! मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूं। हे मृड! आप सतोगुण से व्याप्त सबका पालन करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। हे परमात्मा! मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूं। |
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं । क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः ।। इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् । वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ।।३१।। |
Krisha-parinati cetah klesha-vashyam kva cedam kva ca tava gunasimol langhini shashva-driddhih, iti cakita-mamandi kritya mam bhakti-radhad varada caranayo-ste vakya-pushpo-paharam. ||31|| |
हे शिव! आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित बढता ही जाता है। अपनी सीमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूं ? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है। तथा मैं आपके कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूं। |
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे । सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।। लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं । तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ।।३२।। |
Asita-giri-samam syat kajjalam sindhu-patre sura-taruvara-shak- ha lekhani patra-murvi, likhati yadi grhitva sharada sarva-kalam tadapi tava gunanam isha param na yati. ||32|| |
यदि कोई गिरि (पर्वत) को स्याही, सिंधु को दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाएं। तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें। तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है। |
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः । ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।। सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः । रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ।।३३।। |
Asura-sura-munindrair arcita-syendu-mauler grathita-g- una-mahimno nirguna-syesvarasya, sakala-gan- a-varisthah pushpadanta-bhidhano rucira-mal- aghu-vrittaih stotra-metac-cakara. ||33|| |
इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गंधर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है जो गुनातीत हैं। |
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत् । पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः ।। स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र । प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ।।३४।। |
Ahara-harana-vadyam dhurjateh stotra-metat pathati paramabhaktya shuddhacittah pumanyah. sa bhavati shivaloke rudra-tulya-stathatra pracurata- ra-dhanayuh putravan-kirtimanshca. ||34|| |
जो भी इस स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है। वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिव धाम को प्राप्त करता है तथा शिवातुल्या हो जाता है। |
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः । अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ।।३५।। |
Maheshannaparo devo mahimno napara stutih, aghorannaparo mantro nasti tattvam guroh param. ||35|| |
महेश से श्रेष्ठ कोइ देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं। ऊँ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से ऊपर कोई सत्य नहीं। |
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः । महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।३६।। |
Diksha danam tapas tirtham jnanamyaga-dikah kriyah, mahimnah stava pathasya kallam narhanti shodashim ||36|| |
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इस स्तोत्र के पाठ के सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते हैं। |
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः । शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः ।। स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् । स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः ।।३७।। |
Kusuma-dashana-nama sarva-gandharva-rajah shishu-sh- ashadhara-mauler deva-devasya dasahsa khalu nija-mahimno bhrashta evasya roshat stavanamidamakarsid divya-divyam mahimnah. ||37|| |
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परं भक्त था। अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्य स्वरूप से वंचित हो गया। तब उसने इस स्तोत्र की रचना करा शिव को प्रसन्न किया। तथा अपने दिव्या स्वरूप को पुनः प्राप्त किया। |
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं । पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः ।। व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः । स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ।।३८।। |
Suravaramuni-pujyam sarvagamokshaikahetum pathati yadi manushyah pranjalir-nanyacetah,vrajati shiva-samipam kinnaraih stuyamanah stavanamidamamogham puspadanta-pranitam. ||38|| |
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाटा है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है। |
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम् । अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ।।३९।। |
Asamapta-midam stotram punyam gandharva bhashitam, anaupamyam manohari shiva-mishvara-varnanam. ||39|| |
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परं सुख की प्राप्ति होती है। |
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः । अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ।।४०।। |
Ityesa vanmayi puja shrimac shankara padayoh, arpita tena devesah priyatam me sadashivah. ||40|| |
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है। प्रभु हमसे प्रसन्न हों |
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर । यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ।।४१।। |
Tava tattwamna janami kidrishosi maheshwara yadrashosi mahadeva tadrashaya namo namah ||41|| |
हे शिव ! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानताहूं। हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता हूं,उसको नमस्कार है। |
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः । सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ।।४२।। |
Eka kalam dwikalam wa trikalam yah pathennarah sarva papa vinirmuktah shivaloke mahiyate. ||42|| |
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है। |
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन । स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण ।। कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन । सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ।।४३।। |
Sri pushpadanta mukha pankaja nirgatena stotrena kilbisha harena hara-priyena, kanthas thitena pathitena samahitena suprinito bhavati bhutapatir maheshah. ||43|| |
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है |
Benefits of the Shiva Mahimna Stotram:
The Shiva Mahimna Stotram beautifully captures the essence of Lord Shiva’s divine attributes and invokes a sense of devotion and reverence towards the Lord. Reciting or listening to this hymn with a sincere heart is believed to bring blessings, spiritual upliftment, and inner transformation.
It is believed to have been composed by a sage named Pushpadanta. The stotram consists of beautiful verses that describe the divine attributes, mystic form, and divine acts of Lord Shiva.
The stotram is a good resource for those on a spiritual path since it can help them strengthen their spiritual link to Lord Shiva. By regularly chanting the stotram, an individual can foster a greater feeling of reverence inside themselves and support their journey through life towards expansion of conscience and essentially inward understanding.
This stotram is helpful for attaining Lord Shiva’s kindness; he is widely recognized as one able to eliminate difficulties, both material and religious, and capable of distributing favourable circumstances. By chanting the stotram, individuals can request His blessings while they struggle with obstructions in their existence.